बुढ़िया की घाटी:आज़ादी से पहले की गाथा

मैं बचपन से ही अपने बूढ़े-बुजुर्गों से यह सच्ची कहानी सुनते आ रहा हूँ।  यहां तक की अपने माता-पिता से भी मैंने यह कहानी सुनी हुई है और ये शत-प्रतिशत सच है।  तो चलिए आपको बताता हूँ कि आखिर कहानी क्या है?


कहानी कि पृष्ठभूमि 

हमारा गांव उत्तराखंड की पहाड़ियों में बसता है और बद्रीनाथ हाईवे से लगभग तीन किलोमीटर की चढ़ाई चढ़ने के बाद गाँव पहुंचा जाता है।  वो अलग बात है कि अब गांव में सड़क पहुंच गयी है तो अब सुगमता हो गयी है परन्तु आज से लगभग 6-7 वर्षों पहले तक यही 3 किलोमीटर की चढ़ाई चढ़नी पड़ती थी।  टेढ़े -मेढ़े ,पथरीले एवं खतरनाक घाटियों वाले संकरे रास्तों से गुजरकर हम लोग गांव पहुंचते थे। और ये रास्ते बहुत खतरनाक हैं।  नीचे देखने पर चक्कर आ जाता है इतनी ऊंची पहाड़ियों  पर ये रास्ते बने हुए थे, अगर किसी का गलती से भी पाँव फिसल गया तो उसका नीचे गहरी घाटी में बचना असंभव है। 

इन्ही खतरनाक रास्तों पर एक जगह है जिसका नाम है "बुडिये गैर"।  इसका अर्थ है "बूढ़ी माता की खाई या घाटी"।  ये घाटी इतनी गहरी है कि नीचे देखने पर चक्कर आ जाते हैं।  मैंने भी व्यक्तिगत रूप से इसे कई बार देखा है और हर बार मन मष्तिस्क में यही प्रश्न कौंधता था कि आखिर इसका ये नाम कैसे पड़ा  होगा ? 

और शायद उस समय मैं लगभग 7-8 वर्ष का रहा होऊंगा जब इस प्रश्न ने मेरे मन से बाहर निकलकर इसका उत्तर ढूंढ़ने का प्रयत्न किया था।  मन में यह प्रश्न लेकर मैं अपनी दादी जी के पास पहुंचा और उनसे ये प्रश्न किया "दादी  बुडिये गैर कु नौं बुडिये गैर कनि के पड़ी ? (दादी बुडिये गैर का नाम बुडिये गैर कैसे पड़ा ?) दादी जी मुस्करायी और बोली "आजा बैठ यहां, तुझे मैं एक कहानी सुनाती हूँ " और सच बताऊँ तो मुझे कहानी सुनने में बड़ी रूचि थी सो दादी जी के पास झट से बैठ गया और कहानी सुनने को व्याकुल हो बैठा और उससे अधिक तो "यह नाम कैसे पड़ा" इसके लिए व्याकुल था। 


दादी जी ने प्रारम्भ किया " बेटा , तुझे मैं जो कहानी सुना रही हूँ, मैंने भी ये कहानी अपनी सास से सुनी थी तो तुझे भी मैं आज सुना देती हूँ " हाँ तो बात उन दिनों की है जब अंग्रेज भारत पर राज करते थे। मेरठ तक अंग्रेजों की बहुत जबरदस्त पकड़ थी और हमारे यहां पहाड़ों पर कुछ कुछ जगहों पर उनका राज था।  जैसे अलकन्दा नदी के उस पार के गढ़वाल को ब्रिटिश गढ़वाल कहते थे।  धीरे-धीरे अंग्रेजों की नजर पहाड़ के अन्य दूरस्थ क्षेत्रों पर पडी जहां वो राज करना चाहते थे। 

जब अंग्रेजों को पहली बार देखा

हमारे गांव से लगे हुए अन्य पडोसी गाँव में अंग्रेज अफसर पहुंचने लगे थे।  मुझे अच्छी तरह आज भी याद है जब मैं बहुत छोटी हुआ करती थी तो मैंने कुछ अंग्रेज अफसरों को देखा भी था।  उनकी भाषा हमारी समझ में नहीं आती थी और न ही हमारी भाषा उनकी समझ में।  तब गांव के कुछ पढ़े लिखे नौजवान और जमींदार/साहूकार आदि लोग उनसे अंग्रेजी में बात करते थे।

तब कहीं जाकर हमें पता चलता था की वो लोग क्या बोलना चाहते थे।  वो दिखने में बहुत गोरे होते थे बिलकुल माखन की तरह चिट्टे।  बचपन के बाद मैंने उन्हें कभी नहीं देखा , शायद तब हमारा देश उनकी गुलामी से आज़ाद हो चला था।  "दादी गुलामी क्या होती है? मैं कौतूहलवश पूछ लिया करता था बीच बीच में और दादी मुस्कराकर मेरी जिज्ञासा, अपनी मीठी वाणी और सटीक उत्तरों से शांत कर देती थी। ।  "हाँ तो मुख्य बात पर आते हैं" दादी को लगता था की मैं कहीं शीर्षक से भटक न जाऊं इसलिए बीच-बीच में जोर की आवाज़ देकर मेरा ध्यान मुख्य शीर्षक पर ही बनाये रखती थी।  "हाँ तो दादी आगे क्या हुवा?"


दादी ने लम्बी गहरी सांस ली और बोली " ध्यान से सुन ! मेरी सास बताती थी कि एक बार मुख्य रोड (बद्रीनाथ वाला हाईवे) से कुछ अंग्रेज हमारे गांव कि तरफ चढ़ाई कर रहे थे।  उनके लिए वो 3 किलोमीटर की  चढ़ाई करना इतना आसान नहीं था।  हालांकि वो घोड़े आदि पर सवार होते थे परन्तु रास्ते ही इतने संकरे थे कि चलना कठिन था।  शाम होते-होते उन्होंने रास्ते का आधे से ज्यादा भाग पार कर लिया था।

"फिर क्या हुआ दादी"? दादी बोली उसके बाद वहाँ रास्ते  में थोड़ा सा विश्राम करने के बाद वो गांव कि तरफ पुनः बढ़ चले।  मैं बड़े चाव और कोतुहलवश कहानी को सुन रहा था और मन में हर पल यही विचार कौंध रहा था न जाने आगे दादी कहानी में क्या मोड़ लाने वाली हैं ? " "दादी क्या वो अंग्रेज हमारे गांव में पहुंच  गए थे?" 

दादी ने मेरी तरफ यूँ देखा जैसे मानों वो मेरी मनोदशा भांप गयीं हों और मुस्कराकर बोली " जरा धैर्य रख ,बता रही हूँ , वो पानी का ग्लास दे मुझे पानी प्यास लगी है' "ओहो दादी! पानी मांगकर आपने तो कहानी का सारा मज़ा ही ख़राब कर दिया" मैं झुंझला कर बोला। "तुझे बोला न बेटा धैर्य रख" बिलकुल अपने बाप पर गया है, ज़रा भी सबर नहीं है तुझे"।  दादी आगे बताओ न ! मुझ से अब रहा नहीं जा रहा था। "हाँ तो आगे सुन" दादी ने पानी पीकर जैसे ही ये शब्द बोले मेरी आखें ख़ुशी से चमक गयी और कहानी के अगले हिस्से को सुनने के लिए मैं फिर से बड़ा उत्सुक और उद्यत था और दादी के हर शब्द को बड़े ध्यान से सुनने लगा। 

जब अंग्रेजों का लश्कर गांव पहुंचा

परन्तु गांव वालों को न जाने कैसे खबर हो गयी थी कि अंग्रेजों के एक टोली गांव पहुंचने वाली हैं और वो बड़ी-बड़ी बंदूके भी साथ में लाये हैं।  "बंदूकें"!!!!  मैं जोर से एवं उत्सुकतापूर्वक चिल्लाया।  दादी घबरा गयी और बोली "चिल्लाता क्यों है?" "दादी वो बंदूकें तो बहुत खतरनाक होती होंगी न? दादी बोली "हाँ रे हाँ" "कितने सवाल करता है" ? "तुझे कहानी सुननी है कि नहीं ?"।  हाँ सुननी है न ! मैं तपाक से बोला। 

तो फिर ध्यान से सुन , ये बीच-बीच में अचानक शोर मत कर" "ठीक है दादी नहीं करूँगा"।  "हाँ तो गांव वालों को किसने बताया कि अंग्रेज आने वाले हैं" मैं दादी के प्रारम्भ करने से पूर्व बोल पड़ा  ? दादी इससे पहले मुझे डांटे मैंने कहानी की कड़ी को जोड़ दिया ताकि दादी  का सारा ध्यान कहानी को रि-स्टोर करने में लग जाय और मुझे फिर से डांट  न पड़  जाय।  चतुर तो था मैं ?

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"वो पता नहीं कि गांव वालों कैसे पता चला" पर पता चल गया था" "उसके बाद क्या हुवा दादी?" उसके बाद गांव वाले सारे लोग घबरा गए कि अब क्या किया जाय ? जब तक अंग्रेज गांव तक पहुंचते गांव वालों ने एक सभा बुलाई।  उसमे सब लोग बच्चे, बूढ़े,जवान ,स्त्री,पुरुष सबको बुलाया गया।  मेरी सास भी गयी थी उस सभा में। "गांव का एक जवान लड़का बोला "मैंने सुना है कि अंग्रेज लोग गांव में लूट-पाट करते हैं " उसकी ये बात सुनकर सब लोग घबरा गए।  "तो अब क्या किया जाय।? सब लोग एक साथ चिल्लाये। 

"फिर उसके बाद क्या हुआ दादी ? मैं बड़े चिंताजनक स्वर में दादी से पूछ बैठा क्योंकि कहीं न कहीं मेरे बाल-मन में दुःख हो रहा था कि ये अंग्रेज अब मेरे गांव को लूटेंगे।  वहीं से उसी दिन से मुझे अंग्रेजों से नफरत होने लगी थी। दादी बोली "बेटा उसके बाद जो हुआ वह हमारे गांव के इतिहास में दर्ज हो गया"।  "ऐसा क्या हुआ दादी ? मैं कोतुहलवश पूछ बैठा 

"उस सभा में जब लोग मंत्रणा कर रहे थे कि कैसे अंग्रेजों से निपटा जाय उसी समय सभा में से एक बहुत वृद्ध महिला आगे आयी और बोली " तुम सब लोग व्यर्थ में चिंता मत करो, इन अंग्रेजों से में निपट लूंगी" भीड़ में से एक बोला "क्या ताई ? "उम्र के साथ आपकी बुद्धि भी ख़तम हो गयी है"  वो पूरा लश्कर आ  रहा है और आप बोलती हो कि आप अकेली उन सबका मुकाबला कर लोगी ? लगता है ताई पागल हो गयी है।  "तू चुप कर" ताई जोर से चिल्लाई।  "मैं जब कह रहीं हूँ कि मैं देख लूंगी तो देख लूंगी "।  वो लड़का फिर से बोला "लगणू च कि बुड़यी पागल व्हेगी ( लगता है बुढ़िया  पागल हो गयी है)। 

बुढ़िया माता कि सलाह 

बुढ़िया माता ने कहा "जिन लोगो को मुझ पर विश्वास है वो तुरंत गांव के ऊपर कि पहाड़ी पर बनी हुई गुफाओं में छिप जाओ और हाँ ध्यान रहे कि चारों तरफ अँधेरा ही अँधेरा हो।  जब अंग्रेज गांव में आ जायेंगे तो मैं मंदिर के घंटे को जोर-जोर से बजा दूंगी तो तुम सब लोग अपनी-अपनी मशालें बुझा देना और चारों तरफ अँधेरा कर देना"। गाँव वालों ने बुढ़िया की बातें मान ली और गांव के ऊपर की  पहाड़ियों में बनी हुई गुफाओं में छुप गए। 

मैं अभी भी कहानी के अंदर घुसा हुआ था " कि  दादी ने मुझे जोर से हिलाया और बोली "कब से तुझे बोल रही हूँ" पता नहीं कहाँ खो जाता है ? जा वो खिड़की का दरवाजा बंद कर वहाँ से हवा आ रही है। "ओहो दादी ये क्या? बीच-बीच में ये काम देना जरुरी है क्या"? "कितना मज़ा आ रहा था कहानी सुनने में , आपने सारा मज़ा खराब कर दिया"।  अब कोई काम मत देना , मैं नहीं करूँगा" ,


दादी बोली- "ठीक है फिर मैं भी कहानी नहीं सुनाती "।  "नहीं नहीं दादी करूँगा", "सब काम करूँगा" ,"प्लीज़-प्लीज़  कहानी बंद मत करना"।  "कितनी अच्छी और सच्ची कहानी है "  और ये बोलते हुए गिड़गिड़ाते हुए मैं दादी के पाँव पड़ गया।  "अच्छा -अच्छा ठीक ठीक है" ,"पाँव पड़ने की जरुरत नहीं है"। "जा पहले वो खिड़की बंद कर " फिर कुछ देर बाद बोली  "चल बैठ, आगे की कहानी सुन"। दादी बड़े आदेशात्मक स्वर में बोली।  मैं फिर से रिचार्ज होकर कहानी सुनने के लिए व्याकुल हो बैठा और कहानी  के सागर में गोते लगाने लगा ।  

दादी बोली - 'गांव वाले ऊपर गुफाओं में शरण ले चुके थे " पर मंदिर के घंटे कि आवाज़ अभी भी नहीं सुनायी दे रही थी।  वे सब आपस में फुसफुसाने लगे "शायद बुढ़िया घंटा बजाना भूल गयी"।  जितने मुँह उतनी बातें।  वे सब लोग आपस में बात कर ही रहे थे कि अचानक मंदिर के घंटे कि जोर जोर से आवाज़ सुनायी देने लगी।  गांव वालों के गले सूखने लगे।  उन्हें दूर से साफ़-साफ़ दिखाए दे रहा था कि गांव में बहुत सारी मशालें जली हुई थी जिससे पता चलता था कि अंग्रेज पहुंच चुके हैं।  गांव वाले सभी बुढ़िये के लिए चिंतित थे।  परन्तु ये क्या ? 

"क्या हुआ दादी ?" मैंने उत्तेजना एवं घबराहट में पूछा।  दादी बोली - गांव वाले क्या देखते हैं कि लगभग 5-10 मिनट बाद वे सभी माशालें बुझ गयी थी एवं मात्र एक मशाल जली हुई थी और आगे उसी रास्ते पर वापस जा रही थीं जिस रास्ते से वे आईं थी।  इसका अर्थ यह था कि अंग्रेज वापस जाने लगे थे। गांव वाले सब सोचने पर विवश हो गए कि आखिर बुढ़िया ने ऐसा क्या जादू किया कि लोगों ने मशालें बुझा ली और मात्र एक मशाल लेकर वापस जाने लगे ?  सबके मन में अलग-अलग बिचार आने लगे। 

कोई सोचने लगा कि शायद बुढ़िया को अंग्रेज अपने साथ ले गए।  पर उस बेचारी बुढ़िया को ले जाकर भी क्या करेंगे वह तो वैसे भी मरने वाली है।  और इस तरह तमाम तरह कि बातें गांव वाले आपस में करने लगे।  आधा घंटा गुफाओं में प्रतीक्षा करने के बाद सारे गांव वाले दबे पाँव गांव वापस आये।  आते ही देखा तो गांव में कोई नहीं है यहां तक कि वो बुढ़िया माता भी नहीं।  सब लोग बुढ़िया माता के प्रति दया भाव दिखाने लगे। 


लगभग 10  मिनट बाद वे देखते हैं कि बुढ़िया माता उसी रास्ते वापस आ रही हैं।  'अरे वो देखो बुढ़िया माता" वो ठीक हैं " उन्हें कुछ नहीं हुआ है " जैसे ही बुढ़िया माता उनके समीप आयी, सबने प्रश्नो कि झड़ी लगा  दी। "अरे ताई क्या हुआ ? कहाँ गए वे अंग्रेज और तू कहाँ से आ रही है?" वो अंग्रेज वापस तो नहीं आएंगे न ? "तू गयी कहाँ थी ? और न जाने कितने प्रश्न एक साथ बुढ़िया माता पर बरसने लगे। 

"अरे चैन कि सांस लेने दोगे कि नहीं" ? "जिसको देखो बक-बक किये जा रहा है"। बुढ़िया माता जोर से बोली- " ऐसा नहीं कि इस बुढ़िया को कोई एक ग्लास पानी पिला दे ? सब प्रश्न पूछने पर लगे हुए हैं"।  "ए राजू ! जा एक ग्लास पानी लेकर आ, गला सूख रहा है"। "इतनी दूर से चल कर आ रही हूँ वो भी सावन कि इस अँधेरी रात में जहां एक हाथ को दूसरा हाथ नहीं दिखता वहाँ ये सब लोग मेरे बारे में न पूछ कर उन अंग्रेजों के बारे में पूछ रहे हैं"।  "लाता हूँ ताई" , राजू जोर से बोला और अंदर पानी लेने चला गया। 

"उसके बाद क्या हुआ दादी" ? मैने कहानी के अंदर से ही दादी से सवाल पूछ लिया।  मानो मैं स्वयं कहानी के अंदर खड़ा हूँ उस भीड़ में ,और वहीं से दादी से आगे के हिस्से के बारे में पूछ रहा हूँ। दादी बोली - उसके बाद बेटा "उन बुढ़िया माता ने उन्हें सारा घटना क्रम सुनाया। 

क्या अंग्रेजों का अंत आ गया था?

बुढ़िया  माता बोली - "जैसे ही मैंने मंदिर का घंटा बजाना प्रारम्भ किया तो एक अंग्रेज अफसर मेरे पास आया और अपनी अंग्रेजी भाषा में कुछ पूछने लगा"।  मैंने इशारे में कहा कि "मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि वो क्या बोल रहा है ? "मैं लगातार  घंटा बजाये जा रही थी ताकि तुम लोगों को ऊपर गुफा तक सुनाई दे कि अंग्रेज आ गए हैं और अपनी-अपनी मशाले बुझा दें। तब भीड़ में से एक सैनिक आया जिसे हमारी 
गढ़वाली भाषा आती थी , उसने मुझ से  पूछा कि "साब पूछ रहें हैं कि तुम मंदिर का घंटा क्यों बजा रही हो ? " मैं बड़ी चतुराई से जबाब दिया कि सावन के महीने में भगवान् भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए ये घंटा बजा रही हूँ " 


"साब पूछ रहें हैं कि गांव वाले कहाँ हैं ?और यहां इतना घुप्प अँधेरा और सन्नाटा क्यों है ? मैंने मुस्कराकर जबाब दिया " साब सारे गांव वाले बड़े वाले शिवालय में पूजा अर्चना करने शाम को ही निकल गए थे। "मैं बूढी ज्यादा चल फिर नहीं सकती इसलिए नहीं जा सकी और इसी मंदिर में पूजा कर रही हूँ।"  वह सैनिक फिर बोला - 'साब पूछ रहे हैं कि तुम हमें उस शिवालय तक ले जा सकती हो ?" मैंने कहाँ हाँ क्यों नहीं ? "पर मुझे एक मशाल दो और मेरे पीछे-पीछे आते रहो। "पर ध्यान रहे मुझसे आगे कोई मत निकलना वरना रास्ता भटक जाओगे फिर मुझे मत बोलना"  सबने हामी भरी और मुझे एक मशाल दे कर मेरे पीछे-पीछे आने लगे।

क्योंकि उनके पास अब मशाले ख़त्म हो गयी थी और गिन चुनकर कुछ मशालें बची हुई थी और वो मेरे लिए थी।  मैंने उनको पहले ही बोल दिया था कि मेरे अतरिक्ति मशाल किसी के पास नहीं होनी चाहिए वरना मशाल कि अनुपस्थिति में रास्ता नहीं बता पाउंगी इसलिए पूरी भीड़ में एक ही मशाल जली थो वो भी मेरे पास और ऐसा ही मैं चाहती भी थी 

भीड़ में से एक ने बड़ी उत्सुकता से पूछा - ताई फिर आप उन सब अंग्रेजों को कहाँ ले गयी ? "बताती हूँ"।  मैं उन्हें गांव कि टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों एवं संकरीले-कंकरीले रास्तों से ले जाते हुए "बगजब्यावा" वाले धार (चोटी) में ले गयी।  "बगजव्याला वाले धार में "!!!!!!!!!  सब लोग एक साथ चिल्ला पड़े। 

हाँ रे इतना गला क्यों फाड़ रहे हो ? मेरे कान के परदे फट गए हैं " बुढ़िया माता भी जोर से चिल्लाई।  "पर ताई वो धार (चोटी) तो बहुत ऊंचा है और खतरनाक भी।  तुम उन्हें वहाँ क्यों ले गयी ?।  "ये कैसा बेतुका सवाल है ? मैं उन्हें वहाँ क्यों ले जाउंगी समझ में नहीं आया क्या ? नहीं ताई समझ में नहीं आया"

राज अब खुला

बुढ़िया माता बोली - जैसा कि तुम लोग जानते ही हो "बगजवयावा वाला धार बहुत खतरनाक है , और सावन की  रात में, मैं सबसे आगे चल रही थी और सब लोग मेरे पीछे -पीछे।  जहां-जहां मैं जाती वे सब लोगो मेरे पीछे-पीछे वहीं पहुंच जाते।  वे लोग केवल और केवल मेरी मशाल के ही पीछे चल रहे थे क्योकि सावन के इस घुप्प अंधेरे में उन्हें मशाल के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिखाई दे रहा था। 

उसके बाद जैसे ही मैं धार में पहुंचीं मैंने अपनी मशाल धीरे से चोटी से नीचे लुढ़का दी और मशाल के साथ-साथ पीछे से एक-एक कर सारे लोग उस घाटी में गिरने लगे और जब तक गिरने वाले व्यक्ति  की  आवाज़ आती वो नीचे स्वर्ग सिधार चुका होता।  और इस तरह मैं उन्हें वहाँ पंहुचा कर मैं यहाँ वापस आयी हूँ।  "ए राजू तेरा पानी का ग्लास नहीं आया भी तक? कहाँ मर गया ये राजू ? और ये सुनाकर बुढ़िया माता राजू के पीछे पानी लेने चली गयी।  बुढ़िया माता सब को सन्न करके राजू को ढूंढ़ने चली गयी। 


सब लोग चुपचाप एक दूसरे का मुंह देख रहे थे।  मानों किसी के पास शब्द ही नहीं थे।  आखिर ये बुढ़िया माता क्या सुनाकर चली गयी।  कुछ देर बाद जब लोगो ने अपने आप को संभाला तो जाकर लोगो का महसूस हुआ कि बुढ़िया माता नै उस गैर (घाटी) में सब अंग्रेजों को धकेलकर हम सब लोगो के जीवन और गांव कि रक्षा की है।  इसलिए उस गैर (घाटी का नाम) आज से "बुढ़ई का गैर" होगा। तो तब से ही उस घाटी को बुढ़िया कि घाटी कहते हैं।  

और इस तरह से मेरी दादी ने वो कहानी वहीं पर समाप्त की और मेरे हिस्से में छोड़ दी कई सारी यादें जो मुझे सोचने पर विवश कर रही थी कि हमारे गांव के इतिहास में इस तरह की  भी कोई घटना घटित हुई थी। आज दादी जी हमारे बीच में नहीं हैं  पर उनकी वो यादें कहानी के रूप में मेरे साथ हमेशा रहेंगी । 


उसके बाद मैंने यही कहानी कई और लोगो के मुँह जुबानी भी सुनी और उनमे से तो कई लोगो का कहना है कि आज भी यदि सावन की रात ,में कोई "बुढ़िया के गैर" की तरफ से आता है तो उसे नीचे घाटी से चीखने और चिल्लाने कि आवाज़ें सुनाई देती है। और मानते हैं कि ये चीखने और चिल्लाने कि आवाज़ें उन अंग्रेजों की आत्माओं की हैं जो आज भी उस घाटी में कैद हैं और अपनी मुक्ति के लिए जोर जोर से चिल्लाती हैं। अब यी बातें  कितनी सच हैं या झूठ, इस पर कोई भी टिप्पणी  करना ज़रा कठिन होगा, क्यूंकि मैंने अभी तक ये आवाज़ें नहीं सुनी क्युकी मुझे सावन कि रात में वहाँ से गुजरने का अवसर कभी प्राप्त नहीं हुआ। 

कहानी का सार :-

इस कहानी का कोई विशेष सार तो नहीं है , परन्तु हाँ , हर किसी गाँव कि कोई न कोई हिस्ट्री होती है , इतिहास होता है , आपके गांव की भी होगी , यदि है तो हमारे साथ साझा कीजिये।  आपकी कहानी को हम यहां प्रकाशित करने का प्रयत्न अवश्य करेंगे। 

मेरी कहानियां

मैं एक बहुत ही साधारण किस्म का लेखक हूँ जो अपनी अंतरात्मा से निकली हुई आवाज़ को शब्दों के माध्यम से आप तक पहुँचाता हूँ

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