तो आइये , शुरुआत करते हैं आज की कहानी की। 1990 की कहानी, एक ऐसे लड़के की है जो किशोरावस्था में प्रेम पाश में पड़ गया था परन्तु उसका वह प्रेम उसके किसी भी काम न आया क्योंकि जब तक उसका प्रेम परवान चढ़ता तब तक जिंदगी उसे एक ऐसे मोड़ पर ले आयी थी जहां उसे अपने प्रेम एवं जीवन में से किसी एक को चुनना था और अंततः विजय जीवन की ही हुई। तो आइये शुरू करते हैं।
विनोद का मौन संघर्ष वाला जीवन
विनोद एक बहुत साधारण सा दिखने वाला औसत लम्बाई का लड़का था। बहुत कम बोलता था और दोस्ती भी कुछ ख़ास लोगो से नहीं थी। हाँ जब-जब कोई सामने से मिल लेता तो उनको हेलो,नमस्कार आदि कर लेता था और हमेशा अपने में ही खोया रहता था। हालाँकि हॅसने-हंसाने वाला भी था पर अक्सर चुप ही रहा करता था। परन्तु पढाई-लिखाई में बहुत होशियार था।
विनोद एक बहुत साधारण सा दिखने वाला औसत लम्बाई का लड़का था। बहुत कम बोलता था और दोस्ती भी कुछ ख़ास लोगो से नहीं थी। हाँ जब-जब कोई सामने से मिल लेता तो उनको हेलो,नमस्कार आदि कर लेता था और हमेशा अपने में ही खोया रहता था। हालाँकि हॅसने-हंसाने वाला भी था पर अक्सर चुप ही रहा करता था। परन्तु पढाई-लिखाई में बहुत होशियार था।
हर कक्षा में अब्बल आता था। जिससे कक्षा के सभी विद्यार्थी उसके मुरीद थे। सभी विद्यार्थियों के सहायता भी करता था परन्तु न जाने उसको कौन सी बात हमेशा परेशान करती रहती थी जिसकी वजह से वह हमेशा खोया-खोया सा रहने लगा था। कक्षा आठ तक तो वह बॉयज स्कूल में पढ़ा था और नौंवीं से उनकी कक्षा में लड़कियों का प्रवेश भी प्रारम्भ हो गया था।
जब से लड़कियों का प्रवेश हुवा तब से विनोद और भी अलग-अलग रहने लगा था मानों उसे लड़कियों के साथ को-एड में पढाई करने में जरा भी रूचि नहीं थी। यद्यपि वह कक्षा में सबसे आगे वाली पंक्ति में बैठता था परन्तु उसे यह भी पसंद नहीं आ रहा था क्योकि उसके ठीक दांयीं तरफ वाली पंक्ति में लडकियां बैठती थी जिनकी अक्सर नजर विनोद पर पड़ जाती थी और विनोद यह देख असहज हो जाता था अतः वह वहाँ से अपनी सीट बदलकर पीछे वाली पंक्ति में कहीं भी बैठ जाना चाहता था। और एक दिन वह बैठा भी परन्तु मास्टर जी ने पुनः उसे आगे बैठा दिया। अब विनोद वहाँ बैठे रहने के अतिरिक्त कुछ कर भी नहीं सकता था।
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इस बार भी विनोद ने हर कक्षाओं की भाँती नौंवीं कक्षा के छह-माहि (हाफ इयरली एग्जाम) भी उच्च श्रेणी में पास कर ली थी ,सबके चेहरों पर ख़ुशी थी परन्तु विनोद को मानों कोई फर्क नहीं पड़ता था। साथ पढ़ने वाले शकील ने उससे कहा "अरे विनोद तू भी अजीब है यार , तेरे हर विषय में टॉप मार्क्स हैं तब भी तू खुश नजर नहीं आ रहा है"?
मुझे देख में सेकंड डिवीज़न में पास हुआ हूँ और कितना खुश हूँ" और एक तू है की मुँह लटकाये बैठा है " आखिर क्या बात है यार? कुछ बताएगा भी" बिनोद ने एक हलकी एवं फीकी सी मुस्कराहट के साथ कहा "कुछ नहीं यार बस थोड़ा तबियत सही नहीं हैं इसलिए" "बाकी कोई बात नहीं है"। शकील ने कहा "चल ठीक है अपना ध्यान रखना"। "हम्म" कहने के साथ विनोद वहाँ से चला गया।
साथ में पढ़ने वाली वैदही भी विनोद के इस व्यवहार को बहुत दिनों से नोटिस कर रही थी और इस बाबत उसने कई बार शकील एवं अन्य दोस्तों से पूछा भी परन्तु कोई भी संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाया। बस इतना कह पाए कि"वो ऐसा ही है"। हालाँकि विनोद ने कई बार वैदही कि मदद की थी और अपने नोट्स देकर उसे एग्जाम की तैयारी भी करवाई थी परन्तु इसके अतिरिक्त वह वैदही से ज्यादा बात नहीं करता था।
जब वैदही का थप्पड़ चला : खामोश विनोद
वैदही को ये बात हमेश परेशान करती थी कि आखिर विनोद ऐसा क्यों है? मदद करने के नाम पर मदद भी करता है , बात करने के नाम पर बात भी करता है और तो और कुछ काम करने को बोलो तो वह भी कर देता है परन्तु अपने-आप से कभी भी किसी से बात नहीं करेगा, अपने आप किसी चीज की शुरुआत भी नहीं करेगा। बस अपने आप में खोया रहेगा। वैदही ने सोच लिया कि वह इस बात की तह तक जाके रहेगी और पता करेगी कि आखिर बात है क्या? आखिर क्यों विनोद इतना अलग-अलग सा रहता है ?
वैदही को ये बात हमेश परेशान करती थी कि आखिर विनोद ऐसा क्यों है? मदद करने के नाम पर मदद भी करता है , बात करने के नाम पर बात भी करता है और तो और कुछ काम करने को बोलो तो वह भी कर देता है परन्तु अपने-आप से कभी भी किसी से बात नहीं करेगा, अपने आप किसी चीज की शुरुआत भी नहीं करेगा। बस अपने आप में खोया रहेगा। वैदही ने सोच लिया कि वह इस बात की तह तक जाके रहेगी और पता करेगी कि आखिर बात है क्या? आखिर क्यों विनोद इतना अलग-अलग सा रहता है ?
एक दिन विनोद बाज़ार से कुछ सामान वगैरह खरीद कर घर की तरफ जा रहा था। रास्ते में विजय उसका सहपाठी मिल गया और बोला- "यार विनोद मुझे तेरे बीजगणित वाले नोट्स कुछ दिनों के लिए मिल जायेंगे ? क्योंकि छुट्टी में जाने की वजह से मेरी वह क्लास मिस हो गयी थी इसलिए तू अगर मुझे वो नोट्स देगा तो मेरा बीजगणित वाला चैप्टर पूर्ण हो जायेगा। "हाँ -हाँ क्यों नहीं ? "ये ले" "बल्कि मैं अभी इसे मोहन से वापस लेकर आ रहा हूँ" तू ये रख ले और मुझे 2-4 दिन में वापस कर देना क्योंकि मुझे भी रिवीजन करना है"
और विनोद ने अपने बैग में से जैसे ही अपने नोट्स निकालकर विजय को देने चाहे , वैसे ही सामने से रॉकी ने वो नोट्स छीन कर कहा " अरे कहाँ? ये नोट्स मैं ले जाऊँगा" "मुझे भी चैप्टर पूर्ण करना है "। रॉकी वहाँ कब आ धमका ये किसी को भी पता नहीं चला। रॉकी कक्षा का दबंग लड़का था और सब से अक्सर झगड़ता रहता था। उसकी दादागिरी पूरी कक्षा में चलती थी। अतः सभी विद्यार्थी उससे डर कर रहते थे।
ये क्या बदतमीज़ी है रॉकी ? विनोद चिल्लाया। अरे ये बदतमीज़ी नहीं है रे ? "ये मेरा स्टाइल है और मैं जब तक चाहूँ ये नोट्स अपने पास रख सकता हूँ" "कोई मेरा क्या उखाड़ लेगा" ? देख रॉकी , विजय को इन नोट्स की बहुत जरुरत है क्योंकि वह छुट्टी पर गया था। तू तो चैप्टर वाले दिन स्कूल में ही था तो तुझे इन नोट्स की क्या जरूत है ? तूने तो नोट्स बना ही रखे हैं तो प्लीज़ ये नोट्स विजय को दे दे, विनोद ने जरा शख्त लहजे में कहा।
"नहीं दूंगा" , "क्या कर लेगा रे तू" ? "मारेगा" ? "मारेगा मुझे" ? विजय भी अब घबरा गया था और रॉकी अभी भी अपनी दबंगई दिखा रहा था। अबे ! विनोद मारेगा क्या ? मार न ! मार न ! और "चटाक" !!एक जोर का झन्नाटेदार थप्पड़ रॉकी के गाल पर पड़ा। रॉकी धड़ाम से औंधें मुँह नीचे गिर गया। विजय भी ये देख बुरी तरह घबरा गया। रॉकी गुस्से से तिलमिला गया और जैसे ही उठ कर विनोद को मारने लगा तो देखा कि सामने वैदही खड़ी है और उसे थप्पड़ मारने वाली वैदही है न कि विनोद। गुस्से में वह चिल्लाया "वैदही तेरा दिमाग खराब हो गया है क्या ? "तूने मुझे थप्पड़ क्यों मारा" ?
"मैंने देखा, कि तू किस तरह से विनोद एवं विजय से बदतमीज़ी कर रहा था" वैदही बोली। रॉकी झल्लाया - "तो तुझे इससे क्या?" तेरे नोट्स ले रहा हूँ क्या"? या तुझ से बात कर रहा हूँ ?" । वैदही बोली -"ये मायने नहीं रखता कि तू किससे नोट्स ले रहा है या किसे बोल रहा है" ? "मायने ये है कि तू बदतमीज़ी कर रहा है" और किसी से भी बदतमीज़ी करेगा तो थप्पड़ ही खायेगा"। चल अब विनोद के नोट्स वापस कर और भाग यहाँ से, दुबारा नजर मत आना"। रॉकी ने नोट्स वापस देकर वहाँ से जाना ही उचित समझा और बोला - "ठीक है -ठीक है" देख लूंगा तुम सबको"। और वहाँ से रॉकी नौ दो ग्यारह हो गया।
थैंक यू वैदही ! विनोद बोला। "तुम नहीं आती तो पता नहीं यहां पर क्या हो जाता ?" वैदही बोली - "विनोद तुम्हे अपना स्टैंड लेना चाहिए" रॉकी जैसे लड़कों को सबक सिखाना चाहिए"। "खैर विजय को नोट्स दे दो"। उसको इनकी बहुत ज्यादा जरुरत है। और विजय नोट्स लेकर वहाँ से चला गया। फिर विनोद एवं वैदही वहाँ कुछ दूर तक पैदल चले।
स्कूल की कक्षा से दिलों तक का सफर
विनोद ने उत्सुकतापूर्वक पूछ लिया -" वैदही तुम्हारा यह नाम "वैदही" किसने रखा" ? वह मुस्करायी और बोली " मेरा ये नाम मेरी मम्मी ने रखा है। "अच्छा" विनोद बोला। वैसे "वैदही", माता सीता का नाम है न ?" विनोद ने प्रश्नात्मक भाव से पूछा। "हाँ" वैदही बोली। "तो मैं तुम्हे आज से माता सीता पुकार लूँ "? विनोद ने बड़े मज़ाकिया भाव से पूछा और हँसता हुआ आगे बढ़ गया। विनोद को पहली बार वैदही ने अपने-आप बोलते हुए और हँसते हुए देखा। उसे न जाने क्यों आज एक दूसरा ही विनोद नजर आ रहा था। और विनोद के बारे अन्य बातें सोचते हुए वैदही भी अपने घर कि ओर बढ़ी।
विनोद ने उत्सुकतापूर्वक पूछ लिया -" वैदही तुम्हारा यह नाम "वैदही" किसने रखा" ? वह मुस्करायी और बोली " मेरा ये नाम मेरी मम्मी ने रखा है। "अच्छा" विनोद बोला। वैसे "वैदही", माता सीता का नाम है न ?" विनोद ने प्रश्नात्मक भाव से पूछा। "हाँ" वैदही बोली। "तो मैं तुम्हे आज से माता सीता पुकार लूँ "? विनोद ने बड़े मज़ाकिया भाव से पूछा और हँसता हुआ आगे बढ़ गया। विनोद को पहली बार वैदही ने अपने-आप बोलते हुए और हँसते हुए देखा। उसे न जाने क्यों आज एक दूसरा ही विनोद नजर आ रहा था। और विनोद के बारे अन्य बातें सोचते हुए वैदही भी अपने घर कि ओर बढ़ी।
समय बीतता रहा और नौंवीं कक्षा के वार्षिक परीक्षाएं भी नजदीक आ गई। सभी विद्यार्थी तैयारियों में लग गए। परीक्षाएं बीतीं और हमेशा की तरह विनोद इस बार भी टॉप रैंक में पास हुआ। वैदही इस बार द्वितीय श्रेणी में पास हुई और शकील तृतीय श्रेणी में। सबसे अच्छी बात यह रही कि कोई भी विद्यार्थी इस बार अनुतीर्ण नहीं हुआ। सब के सब दसवीं कक्षा में प्रवेश पा गए। वैदही ने विनोद को शुभकामनाएं दी तो विनोद ने भी वैदही को शुभकामनयें दी।
और इस प्रकार नियति हर बार किसी न किसी बहाने वैदही एवं विनोद को नजदीक ले आती और दोनों में अब गहरी दोस्ती हो चुकी थी। दोनों अब जवानी कि दहलीज़ पर पाँव रख चुके थे। दसवीं की कक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के बाद विनोद अपने घर के काम से गांव चला गया और वैदही के पिता का ट्रांसफर किसी दूसरे शहर में हो गया तो वैदही को तो जाना ही था। परन्तु ठीक एक दिन पहले ही वैदही एवं विनोद एक दूसरे को मिले और फिर से भविष्य में "टच" में रहने के वचन को लेकर एक दूसरे से दूर हो गए।
समय का चक्र चलता गया और लगभग 7 वर्ष बाद विनोद को अपने एकेडेमिक सत्र का आखिरी साल पूर्ण करने के लिए शहर जाना था। इसलिए वह अगले दिन की बस पकड़ कर शहर चला आया। विनोद अब जवान हो चला था। उसके चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ खूब फबती थी। परन्तु कद काठी से वह अब भी औसत दर्जे का ही था परन्तु पढाई में अभी भी बहुत तेज। इस सत्र का आखिरी साल भी उसे स्कॉलरशिप में पूर्ण करने का अवसर प्राप्त हुआ था .
शहर आकर उसने कॉलेज में एड्मिसन लिया। एक दिन पुस्तकालय में पुस्तक पढ़ते वक़्त उसकी नजर एक लड़की पर पड़ी जो ठीक उसके सामने वाले मेज पर कोई पुस्तक पढ़ रही थी। परन्तु विनोद की नजर पुस्तक पर थी जो उसे चाहिए थी और वह उसे कहीं मिल नहीं रही थी। जिज्ञासावश वह उठकर उस लड़की के पास आया और बोला "सुनिए मिस ! ये पुस्तक आप पढ़ने के बाद मुझ देंगी ?" "वास्तव में यह पुस्तक मेरे बहुत काम की है और इसे मैं काफी दिनों से ढूंढ रहा था और आज आपके हाथों में दिख गयी" कृपया मना मत कीजियेगा"।
लड़की ने आखें ऊपर कर उसे देखा तो कुछ पल देखती रही। कुछ देर बाद बोली -"अरे विनोद ? तुम ? यहां ? कैसे हो ? पढाई कम्पलीट नहीं हुई अभी ? विनोद सकपका गया और बोला " क्या हम एक दूसरे को जानते हैं"? "अरे मैं ? "वैदही" नहीं पहचाना ? स्कूल में तुम्हारे साथ थी, तुम्हारे शहर में। "अरे वैदही" ? तुम ? हे भगवान् ! तुम तो पहचानने में ही नहीं आ रही हो ? "बहुत बड़ी हो गयी हो गयी हो और सुन्दर भी"। यह सुनते ही वैदही शरमा गयी और उसका चेहरा सुर्ख गुलाबी हो गया।
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"पर वैदही तुमने मुझे पहचाना कैसे" ? मेरा मतलब हम इतने वर्षों बाद मिल रहे हैं और मैंने तो दाढ़ी मूछ भी बढ़ा रखें है तो कैसे? वैदही बोली - शायद मैं तुम्हे नहीं भी पहचानती पर तुम्हारी आँखें और उनके ऊपर जो ये छोटा सा तिल है न ? इनको मैं कभी नहीं भूल सकती। इन्ही की वजह से मैं तुम्हे पहचान पायी"। "ओह अच्छा" यह कहते हुए विनोद अपने उस तिल को छूने लगा और मुस्करा दिया।यहां कैसे आना हुआ और खासकर इस कॉलेज में ? फिर विनोद ने उसे पूरी बात बताई
और इस तरह वर्षों पहले बिछड़े हुए दोस्त वापस फिर से मिल गए। और फिर मिलने जुलने का सिलसिला चालू रहा। एक दिन वैदही बोली -" विनोद ! "मैं तुम से बहुत सालों से एक बात बोलना चाहती थी पर कभी बोल ही नहीं पायी" "और बिना बोले रहा भी नहीं जा रहा है। हाँ बोलो न वैदही ! विनोद बोला। वैदही बोली - "विनोद मैं तुमसे बहुत प्रेम करती हूँ और आज से नहीं तब से जब से हम स्कूल में थे पर मैं तुम्हे कभी बोल नयी पायी।"
"मैं मानती हूँ की उस वक़्त हम बहुत छोटे थे परन्तु मेरे ह्रदय में तुम्हारे लिए प्रेम के पुष्प ने कब जन्म लिया मुझे पता ही नहीं चला और जब तक मैं तुम्हे अपने प्रेम के स्वरुप को प्रकट करती तब तक मेरे पिताजी का ट्रांसफर यहां हो गया"। "उसके बाद तो तुमसे कभी मिलना-जुलना भी नहीं हुवा।" "मेरे पास तो तुम्हारे गांव का एड्रेस भी नहीं था जो मैं तुम्हे चिट्ठी लिखती"। "और मुझे लगता है यह सही समय है अपने प्रेम को उजागर एवं प्रकट करने का"।
प्रेम या काल तक प्रतीक्षा
विनोद अपलक उसकी बातों को सुन रहा था और मानो उसने ऐसी बात सुन ली हो जिससे उसे झटका लगा हो। "विनोद ! विनोद !" वैदही जोर से बोली " कहाँ खो गए हो विनोद" ? "मैं कब से अपनी बातें बोली जा रही हों और एक तुम हो कि पता नहीं कहाँ खोये हुए हो ? तुमने सुना भी कि नहीं ? जो मैंने कहा अभी? हँ ! हँ ! अ ! हाँ हाँ सुना न ! सुना मैंने तुमने क्या कहा ?।
विनोद अपलक उसकी बातों को सुन रहा था और मानो उसने ऐसी बात सुन ली हो जिससे उसे झटका लगा हो। "विनोद ! विनोद !" वैदही जोर से बोली " कहाँ खो गए हो विनोद" ? "मैं कब से अपनी बातें बोली जा रही हों और एक तुम हो कि पता नहीं कहाँ खोये हुए हो ? तुमने सुना भी कि नहीं ? जो मैंने कहा अभी? हँ ! हँ ! अ ! हाँ हाँ सुना न ! सुना मैंने तुमने क्या कहा ?।
दबे हुए स्वर में वैदही बोली - "तो क्या तुम भी मुझ से प्रेम करते हो" ? विनोद ने एक पल के लिए वैदही को देखा और अगले ही पल आखों में आंसू लिए वहाँ से चला गया। वैदही सन्न रह गयी। ये क्या ? यहां तो उलटा ही हो रहा है। उसकी कुछ भी समझ में नहीं आया। आखिर विनोद वहाँ से चला क्यों गया ? क्या उसने ये बात बताकर विनोद का ह्रदय दुखाया ?
दूसरे दिन जब वैदही विनोद से मिली तो वह स्वयं भी कुछ डरी हुई थी। पता नहीं आज विनोद कैसी प्रतिक्रया देगा। शाम के समय वे दोनों पुस्तकालय में पुनः मिले। पठन सामग्री पढ़ने के बाद दोनों कुछ देर के लिए सिटी पार्क कि तरफ चले गए। वहाँ पर दोनों कुछ देर के लिए बैठ गए। वैदही ने पूछा - "विनोद ! कल तुम बिना बताये चले गए और मेरे प्रश्न का उत्तर भी नहीं दिया ! मैंने कुछ गलत बोल दिया क्या ?
विनोद कुछ देर के लिए वैदही को देखा और एक लम्बी गहरी सांस लेकर बोला - " वैदही ! "कल तुमने मुझ से ऐसी बात बोली जिसका वजन में एकदम से सह नहीं पाया"। "वैदही कल तुमने वही बात बोली जो मैं न जाने कितने वर्षों से तुमसे बोलना चाहता था परन्तु अपने गुम-सुम रहने वाले प्रकृति के कारण कभी तुमसे बोलने का साहस नहीं कर पाया।
और फिर सोचा कि तुम्हारी सोच , रहन सहन और मुझ में जमीन आसमान का अंतर है , तुम्हारा और मेरा जोड़ नहीं हो सकता। परन्तु आज तुमने अपने प्रेम को उजागर कर, मुझे गलत साबित कर दिया। मैं भी तुमसे उतना ही प्रेम करता हूँ जितना तुम करती हो। यह सुन वैदही जोर से चिल्लाई - "सच्ची !!!!!!! Oh I love you Vinod ! I love you so much ! आज मैं बहुत खुश हूँ।आज मैं पूरी दुनिया को बता देना चाहती हूँ कि मैं तुमसे कितना प्यार करती हूँ। परन्तु विनोद उसकी इस ख़ुशी को देख कर कुछ विशेष खुश नहीं था। वह बस वैदही कि ख़ुशी देख कर मुस्करा भर रहा था।
वैदही ! वैदही ! अरे सुनो न ! नीचे तो बैठो ! कहाँ उड़ रही हो ? यहाँ बैठो तो सही ! मेरी बात तो सुनो! विनोद उससे बैठने के लिए आग्रह कर रहा था क्योंकि वैदही ख़ुशी के मारे उछल उछल कर उड़ रही थी। उसका ख़ुशी का ठिकाना नहीं था।
काफी देर बाद वैदही बैठी और बोली "क्या है विनोद ? ये तो ख़ुशी का पल है" हम दोनों को तो खुश होना चाहिए पर तुम हो कि हमेशा कि तरह आज भी गुम-सुम हो। आखिर बात क्या है ? क्या तुम खुश नहीं हो ? विनोद बोला - ऐसी बात नहीं है है वैदही। खुश तो मैं भी बहुत हूँ परन्तु .........................
परन्तु क्या विनोद? ख़ुशी ने प्रश्नात्मक भाव से पूछा। कुछ दिक्कत है क्या ? अगर कोई दिक्कत है तो मुझे बताओ। मिलकर हल निकालेंगे प्रॉब्लम का। बताओ तो सही।
वैदही ! देखो प्रेम का अर्थ होता है त्याग , बलिदान ,एवं समर्पण। क्या तुम ये सब कर पाओगी अपने प्रेम में। वैदही तनिक सहम कर बोली। आखिर बात क्या है विनोद ? तुम बोलना क्या चाहते हो ? ये त्याग,बलिदान एवं समर्पण जैसी बातें क्यों कर रहे हो? आज ही हम लोगो ने अपने प्रेम को उजागर किया है और तुम आज ही ऐसी बातें कर रहे हो ? आखिर क्यों ?
वैदही ! देखो मैं एक मिडल क्लास परिवार से आता हूँ और मुझ पर बहुत सारी जिम्मेदारियां है। माना कि प्रेम हम करते हैं परन्तु प्रेम के अतिरिक्त परिवार की जिम्मेदारियां भी निभानी पड़ती है और मुझ पर इतनी जिम्मेदारियां हैं कि शायद इस जन्म में हम अपने प्रेम को परिपूर्ण नहीं कर पाएंगे।
हाँ अगर मेरी जिम्मेदारियां जल्द ही ख़त्म हो जाती हैं तो निसंकोच मैं तुमसे विवाह करूँगा। परन्तु अभी मैं तुम्हे झूठे प्रेम पाश में नहीं बाँध सकता। वैदही ने पूछा - आखिर ऐसी कौन सी जिम्मेदारियां है तुम्हारी विनोद ? जिम्मेदारियां सबके पास होती है। परन्तु जिम्मेदारियों के नाम पर हम अपना जीवन बर्बाद तो नहीं कर सकते न? मुझे बताओ क्या जिम्मेदारियां है तुम्हारी ? बताता हूँ। विनोद ने एक लम्बी गहरी सांस ली और बताना शुरू किया .
जिम्मेदारियों का बोझ या फिर प्रेम के पंखुड़ियां
"तुम्हे तो पता ही होगा कि बचपन के समय , मैं कितना गुम-सुम रहता था , किसी से बात भी नहीं करता था"। "हाँ पता है और आज भी तुम वैसे ही नजर आते हो ? वैदही ने तपाक से बोला। विनोद बोला- "दरअसल मेरे घर पर मेरे पिताजी अक्सर शराब पीकर झगड़ा करते रहते थे। आये दिन वो माँ को पीटते रहते थे। हम छोटे थे तो कुछ बोल या कर नहीं सकते थे बस अपनी माँ को पिटते और चीखते -चिल्लाते सुनते रहते थे। और घर के किसी कोने में रोने के अतिरिक्त हम भाई बहन कुछ नहीं सक सकते थे।
"तुम्हे तो पता ही होगा कि बचपन के समय , मैं कितना गुम-सुम रहता था , किसी से बात भी नहीं करता था"। "हाँ पता है और आज भी तुम वैसे ही नजर आते हो ? वैदही ने तपाक से बोला। विनोद बोला- "दरअसल मेरे घर पर मेरे पिताजी अक्सर शराब पीकर झगड़ा करते रहते थे। आये दिन वो माँ को पीटते रहते थे। हम छोटे थे तो कुछ बोल या कर नहीं सकते थे बस अपनी माँ को पिटते और चीखते -चिल्लाते सुनते रहते थे। और घर के किसी कोने में रोने के अतिरिक्त हम भाई बहन कुछ नहीं सक सकते थे।
जब पिताजी का नशा कम होता था तो बजाय अपनी गलतियों को मानने के , वे हम लोगो को ही उल्टा बोलते वो सुनाते थे। और हर रोज कि यही कहानी होती थी। "पर तुम पढाई में अब्बल कैसे आते थे विनोद यदि तुम्हारे घर का माहौल ऐसा था तो"? वैदही ने बीच में ही चिंताजनक स्वर में पूछा। विनोद बोला -" पता नहीं वैदही। शायद ईश्वर कि कृपा थी मुझ पर और मैं पिताजी के सोने के बाद ही अपनी पढाई कर पाता था परन्तु ईश्वर कि कृपा से जो भी पढ़ पाता था वो मेरे लिए काफी होता था और मैं सदैव कक्षा में प्रथम आता था। बस पिताजी के इसी लत कि वजह से में हमेशा चिंता में रहता था।
वैदही बोली - " पर वो तो बचपन की बातें थी न ? अब तो नहीं हैं न ऐसा तो फिर हमारे प्रेम में क्या रुकावट है ? क्यों हम एक दूसरे से विवाह नहीं कर सकते?। वैदही ! मेरी माँ ने हमेशा मुझे एक बात सिखाई "कि चाहे वक़्त कितना भी बुरा हो बेटा , कभी भी माता-पिता के विरुद्ध मत जाना" माना कि तेरे पिताजी का व्यवहार बहुत खराब है और वो पिता कहलाने के लायक भी नहीं है परन्तु जो भी हैं वो तेरे पिता हैं। अगर वे अपनी जिम्मेदारियों से मुख मोड़ रहे हैं तो घर का बड़ा होने के नाते तुझे वो जिम्मेदारियां निभानी है।" अब बताओं वैदही मैं कैसे अपनी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ सकता हूँ ?
वैदही बोली - "हाँ तो विनोद इसमें प्रॉब्लम क्या है ? मैं कब तुम्हे अपनी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ने को बोल रही हूँ। तुम अपनी जिम्मेदारियां निभाओ बल्कि ख़ुशी से निभाओ पर इसमें हमारे प्रेम का बलिदान का मतलब मैं अभी भी नहीं समझी"।
विनोद बोला - "सुनो वैदही"। "मेरे पिताजी के इस आदत के कारण मेरे दूसरी नंबर की बहन की सगाई टूट गयी थी और आज तक उसे कोई अच्छा लड़का नहीं मिल पाया। हम आज भी उसके लिए लड़का ढूंढ रहे हैं पर हर जगह उसकी टूटी हुई सगाई बीच में आ जाती है और न जाने कब उसका विवाह होगा ? उसके बाद छोटी वाली का नंबर और तब कहीं जाकर मेरा या तुम्हारा नंबर आएगा वैदही"। इन जिम्मेदारियों को निभाते-निभाते कम से कम 5-6 वर्ष तो लग ही जायेंगे। क्या तुम तक प्रतीक्षा कर सकती हो ? बताओ ?
वैदही बोली- "बस इतनी सी बात को लेकर मेरा ये बुद्धू दोस्त चिंतित है" ? 5-6 वर्ष तो क्या विनोद तुम्हारे लिए मैं जिंदगी भर प्रतीक्षा कर सकती हूँ"। "ये फ़िल्मी डायलॉग मत मारो वैदही"। वास्तिवकता कहीं अलग एवं कष्टकारी होती है" ,विनोद बोला। वैदही ने जबाब दिया - "ऐसा नहीं है विनोद मैं प्रतीक्षा कर सकती हूँ"। और मुस्करा कर बोली - "तुम देख लेना कही तुम ही फेल न हो जाओ" विनोद एक हलकी मुस्कान लेकर चुप हो गया।
वैदही बोली - "अच्छा एक बात बताओ क्या हम हमेशा इसी तरह से मिल सकते हैं" ,"कहीं घूमने जा सकते हैं" ?" प्रेमी युगल कि तरह प्रेम की मीठी-मीठी बातें कर सकते हैं"? विनोद बोला - "नहीं वैदही वह भी संभव नहीं है"। "मेरे पास स्कूल के बच्चे टूशन पढ़ते हैं तो उनकी कक्षाएं मैं इस तरह से बर्बाद नहीं कर सकता"। "मैं तुम्हारे लिए बोरिंग हूँ वैदही"। "तुम ही कोई अच्छा लड़का देख कर विवाह कर लेना"। "ज्यादा फ़ालतू बात मत करो विनोद" मैं तुमसे प्रेम करती हूँ और करती रहूंगी" , "चाहे उसके लिए मुझे कितनी भी प्रतीक्षा क्यों न करनी पड़े"।
और इस तरह से समय बीतता रहा। कभी-कभार यदि समय मिलता तो विनोद एवं वैदही मिल लेते और अपने कॅरियर एवं जीवन की बातें करते रहते। और इसी तरह जीवन के 6 वर्ष बीत गए। इधर विनोद के सबसे छोटी वाली बहन की विवाह की बातें चल रही थी और उधर वैदही के लिए भी अच्छे-अच्छे रिश्ते आ रहे थे। 2-3 रिश्ते तो वैदही ने स्वयं ही ठुकरा दिए क्योंकि उसे विनोद से ही विवाह करना था। इसी बीच विनोद की सबसे छोटी वाली बहन का विवाह भी अब कुछ महीनों बाद होने वाला था।
एक अधूरी कहानी जो कभी भी पूर्ण न हुई
विनोद एक बड़े शहर में अब एक बहुत बड़ी कंपनी में नौकरी करता था। वैदही भी टीचिंग कोर्स करके अब टीचर बनने वाली थी। दिन गुजर रहे थे। एक दिन विनोद को वैदही का फ़ोन आया कि घर पर एक अच्छा रिश्ता आया है। लड़का भी टीचर है। वैदही बोली - "विनोद बताओ मैं क्या करूँ" ? "घर वाले दबाब डाल रहे हैं"। "मैं हाँ करूँ या ना ? "तुम बताओ"। विनोद उसी वक़्त समझ गया था कि वैदही भी समाज की मार एवं दबाब नहीं झेल पा रही है।
विनोद एक बड़े शहर में अब एक बहुत बड़ी कंपनी में नौकरी करता था। वैदही भी टीचिंग कोर्स करके अब टीचर बनने वाली थी। दिन गुजर रहे थे। एक दिन विनोद को वैदही का फ़ोन आया कि घर पर एक अच्छा रिश्ता आया है। लड़का भी टीचर है। वैदही बोली - "विनोद बताओ मैं क्या करूँ" ? "घर वाले दबाब डाल रहे हैं"। "मैं हाँ करूँ या ना ? "तुम बताओ"। विनोद उसी वक़्त समझ गया था कि वैदही भी समाज की मार एवं दबाब नहीं झेल पा रही है।
यदि उसे मुझ पर पूर्ण रूप से विश्वाश होता तो वह ये सवाल कभी नहीं करती क्योंकि वैसे भी कुछ महीनों में मेरी छोटी बहन का विवाह भी हो जायेगा और उसके बाद तो मैं ही बचा हूँ तो हम दोनों का विवाह भी अगले 4 या 5 महीनो बाद हो ही जायेगा। वैदही को ये सब बातें पता है परन्तु वैदही को इतना सा गणित समझ में नहीं आया और समाज एवं परिवार के दबाब में आकर वह ये प्र्शन पूछ बैठी। कहीं न कहीं वह भी अपने आप को असुरक्षित महसूस कर रही है। विनोद समझ नहीं पा रहा था कि ये वही वैदही है ?
विनोद कि आँखों में अश्रुधारा बह चली और बड़ी मुश्किल से अपने आप को संभालकर उसने जबाब दिया - "देखो वैदही मैं तुम्हे फोर्स नहीं करूँगा। यदि तुम्हे लगता है कि यह रिश्ता तुम्हारे भविष्य के लिए बहुत अच्छा है तो तुम निसंकोच "हाँ" कह दो और उस लड़के से विवाह कर लो" और वहाँ से जबाब आया "ठीक है" और इस जबाब ने तो जैसे विनोद को तोड़ के रख दिया था। उसे अपनी ही कही हुई पंक्तियाँ याद आ गयी - " ये फ़िल्मी डायलॉग मत मारो वैदही"। वास्तविकता कहीं अलग एवं कष्टकारी होती है" और सच में वही हुआ जिसका अंदेशा विनोद को बहुत पहले हो गया था।
इस महीने विनोद अपने गांव छुट्टी आया था। पता चला कि इस महीने कि 10 तारीख़ को वैदही का विवाह है। वह खुश था वैदही के विवाह के लिए क्योकि उसने वैदही को ऐसे पाश से आज़ाद कर दिया था जहां से वह चाह कर भी नहीं निकल पा रही थी। आज वो आज़ाद थी अपने पंखों के साथ उड़ने के लिए। विनोद कि बहन कि शादी भी हो गयी थी। बहन कि शादी के बाद विनोद वापस अपनी नौकरी पर आ गया।
4 साल बाद विनोद अपने गांव वाले शहर में कुछ काम से गया था। वहाँ उसे वैदही मिली। अपने पति एवं बच्चों के साथ। एक सम्पूर्ण एवं प्रसन्न परिवार। वैदही ने दुबारा विनोद को पहचान लिया। इस बार विनोद ने भी पहचान लिया। अरे वैदही ! क्या बात है ? कैसी हो ? थोड़ा मोटी हो गयी हो ! वैदही बोली- हाँ बच्चे होने के बाद तो हो ही जाता है औरतों के साथ ऐसा। "हम्म" विनोद बोला।
हेलो सर ! वैदही के पति कि तरफ हाथ बढ़ाता हुए विनोद ने कहा - सर आपकी पोस्टिंग कहाँ है ? यहां से 40 Kms दूर रिमोट एरिया में पोस्टिंग है मेरी और वैदही बच्चों के साथ देहरादून में शिफ्टेड है। "ओह अच्छा"। "बहुत बढ़िया"। विनोद बोला। अचानक वैदही ने पूछा - "अरे विनोद विवाह वगैरह किया कि नहीं ?। क्या बात करती हो ? तुम्हे क्या लगता है कि मैं जीवन भर ऐसे ही कुंवारा रहूँगा क्या ? एक हैप्पी फॅमिली है मेरी। दो प्यारे-प्यारे बच्चे भी हैं। I am well setteled now. वैदही के मुंह से निकला "वाउ"
तभी विनोद के साथ आये छोटे ने आवाज़ लगायी " ओ विनोद भैया ! चलो जल्दी करो ! जहां देखो गप्प लगाने के लिए रुक जाते हो " देखो मौसम भी ख़राब हो रहा है , कभी भी बारिश आ सकती है। "वहाँ मेरे भैया के विवाह कि तैयारियां अधूरी न छूट जांय "। अरे! अपने आप तो कभी विवाह किया नहीं , कम से कम मेरे भैया का विवाह तो हो जाने दो। यह सुन विनोद वहाँ से झट से निकल गया। वैदही जैसे सन्न रह गयी।
उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि विनोद ने उस से अभी अभी झूठ बोला कि उसकी तो हैप्पी फॅमिली है। उसने छोटू को बुलाकर पूछा " विनोद कि तो हैप्पी फॅमिली है , दो प्यारे प्यारे बच्चें है" तो फिर तुमने ऐसा क्यों कहा कि "अपने आप तो कभी विवाह किया नहीं , कम से कम मेरे भैया का विवाह तो हो जाने दो "।
छोटू बोला " दीदी वो बात ऐसी है कि हमारे विनोद भैया किसी लड़की से बहुत प्रेम करते थे बहुत गहरा वाला, परन्तु उस लड़की को हमारे विनोद भैया पर 99% विश्वास तो था परन्तु 1% अविश्वास था बस उसी 1% के चलते उस लड़की ने कहीं और विवाह कर लिया और हमारे विनोद भैया बेचारे, उस लड़की की यादों के सहारे अपना जीवन काट रहे हैं।
हमने कई बार समझाया कि भैया विवाह कर लो पर भैया हैं कि उस लड़की के लिये आज भी जी रहे हैं। भगवान् जाने क्या होगा आगे। यह कह कर छोटू भी वहाँ से चला गया और वैदही को छोड़ गया एक ऐसे अँधेरे में जहां केवल और केवल उसकी आँखों से अश्रुधारा बह रह थी और मानों कह रही हो कि--
वैदही "तूने जल्दीबाज़ी कर दी"।
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कहानी का सार :
किसी का भी किसी के प्रति प्रेम भाव सदैव निश्छल एवं निश्वार्थ होना चाहिए और साथ में पूर्ण विश्वास ,समर्पण एवं बलिदान की भावना भी होनी चाहिए। बिना इनके आपका प्रेम , प्रेम नहीं बल्कि एक आकर्षण मात्र है। और इसका समझना भी जरुरी है , क्योकि आजकल की जवान पीढ़ी इसी आकर्षण को प्रेम का नाम दे बैठती हैं |
एक सच्चा प्रेम कभी भी और किसी भी उम्र में हो सकता है परन्तु साथ में उपरोक्त भावनाएं अवश्य होनी चाहिए। अब देखिये जितने प्रेम किस्से युवास्था में होते हैं क्या उतने 60 साल के बाद होते हैं ? नहीं। क्योंकि एक सच्चा प्रेम, पूर्ण विश्वास ,समर्पण एवं बलिदान की भावना के साथ होता है और ये इतना सरल नहीं होता है। इसलिए सच्चे प्रेम के किस्से भी बहुत कम होते हैं वरना सब तो आकर्षण ही है।
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