यह घटना कब घटित हुई ?
बात दिसम्बर महीने की थी और सन 1999 था। मेरे कॉलेज के इंटरनल एग्जाम चल रहे थे और फिर फाइनल एग्जाम की तैयारी में लगभग पूरा एक साल में कॉलेज में ही रहा। यहां तक की छुट्टियां पड़ने पर भी मैं अपने रूम पर ही रहकर अध्ययन करता रहा। पढाई के व्यस्त वातावरण से निकलकर अपने गांव जाकर माता-पिता से मिलना नहीं हो पा रहा था। लगभग गांव गए हुए मुझे एक साल हो गया। गाँव की बड़ी याद आ रही थी।
पर शायद ईश्वर ने मेरी सुन ली और मुझे गांव जाने का एक अवसर मिल गया। जिस शहर में रहकर में कॉलेज में अध्ययन कर रहा था उसी शहर में मेरी बुवा जी के लड़के की शादी तय हुई थी। और बारात ने बुवा जी के गांव से निकलकर बीच में मेरे गांव के हाईवे से होते हुए मेरे कॉलेज वाले शहर में आना था। बस मेरे लिए यह अवसर अच्छा था और किस्मत से उन दिनों सरकारी छुटियाँ भी थी तो मुझे लगभग 4-5 दिन का समय मिल गया था।
जब बारात आयी तो मैं सीधे बारात में शामिल होने के लिए भाई के ससुराल पहुंच गया। वह खूब नाच गाना व मस्ती की। अब क्युकी बारात को अगले दिन वापस जाना था तो मेरे पास भी यही अवसर था बारात के साथ जाने का। हालांकि मुझे बरात के साथ बुवा के गांव नहीं जाना था अपितु मुझे आधे रास्ते में ही हाईवे पर उतरकर अपने गांव के लिए लगभग 2 किलोमीटर की चढ़ाई चढ़नी थी। और वैसे भी मेरे लिए पहाड़ों पर चढ़ाई चढ़ना कोई मुश्किल नहीं था क्युकी बचपन से ही हम ये सब करते आ रहे हैं। बस यही था की शाम होने से पहले बरात, हाईवे पर पहुंच जाए और मैं वहाँ उतरकर समय से पहले पहाड़ की चढ़ाई चढ़कर गांव रात होने से पहले पहुंच जाऊँ।
परन्तु हाय रे मेरी किस्मत ! बारात शाम के लगभग 4 बजे शहर से निकलकर बुवा जी के गांव की तरफ रवाना हुई। कारण न जाने क्या था ? वह मुझे आज तक पता ही नहीं चला। शायद वर पक्ष एवं वधु पक्ष का कुछ आपसी मामला था। और शायद इसी कारण बारात देरी से रवाना हुई। मैं जहां समय पर पहुंचने की सोच रहा था अब वहीँ मेरे दिमाग में चढ़ाई वाला एवं जंगल का रास्ता नजर आ रहा था। ये तो पक्का था की मैं अब उस जंगल से अकेला ही गांव की तरफ चढूँगा। जंगली जानवरों का खतरा था और कुछ नहीं। और वैसे भी उत्तरी भारत में दिसम्बर के महीने में रात जल्दी ही हो जाती है और ठण्ड भी बढ़ जाती है जो की शायद मेरे सफर को और कठिन बनाने वाला था।
अरे ! और अचानक ये क्या हुआ ?
मेरा अंदाजा था की मैं शायद 2-3 घंटे में हाईवे पर पहुंच जाऊँगा तो तब भी कोई दिक्कत नहीं होगी। क्युकी गांव का कोई न कोई आदमी जो बाज़ार वगैरह आया होगा तो मिल ही जायेगा परन्तु ज्यादा देर होगी तो कोई नहीं मिलेगा क्योंकि तब तक सब लोग गांव की तरफ निकल चुके होंगे। यही सोचता हुवा मैं बस की खिड़की से बाहर के नजारों का आनंद ले रहा था कि अचानक बस एक झटके के साथ रुकी । सब लोग झटके से सकते में आ गए कि आखिर बस ड्राइवर ने इतने जोर के ब्रेक क्यों मारे। सब लोग बस से उतर के देखने लगे कि आखिर मामला क्या है ?
जैसे ही लोग बाहर आये सब के चेहरे लटक गए , क्युकी रोड पर एक भारी भरकम पत्थर न जाने कहा से आ गिरा था। हालाँकि बरसात का मौसम भी नहीं था कि हम सोचे कि भू-स्खलन हुवा होगा परन्तु दिसम्बर के महीने में पत्थर का गिरना जरा अटपटा लग रहा था। खैर अब मुसीबत ये थी कि इतने बड़े भारी भरकम बोल्डर को रोड से कैसे हटाया जाय ? क्योकि मदद के नाम पर वहां कोई नहीं था और वैसे भी रात हो चुकी थी। सब लोग ठण्ड के कारण अपने-अपने घरों में दुबके हुए थे। फिर सब लोगो ने (दूल्हा-दुल्हन को छोड़कर) ने यह निर्णय लिया की हम सब मिलकर इस बोल्डर को नीचे नदी कि तरफ धकेल देतें है।
सब लोगों ने मिलकर अपनी जोर-आजमाइश शुरू कर दी, उसमे मैं भी था ,परन्तु बोल्डर था कि टस से मस नहीं हो रहा था। इसी हफ़ा-धापी में 30-40 मिनट लग गए जो कि मेरे लिए बहुत चिंता जनक थे। मुझे गांव जाना था और वो भी घनघोर जंगल कि चढ़ाई पार् करके , जहां जंगली जानवरों का खतरा है । खैर जैसे-तैसे करके बारात बस आगे बढ़ी और तय योजनानुसार मैं हाईवे पर् उतर गया।
उनमे से कुछ बुजुर्ग लोगों ने मुझे समझाया भी कि रात काफी हो गयी है और जंगल के रास्ते जाना खतरे से खाली नहीं है और शायद मैं उनकी बात मान भी जाता पर् मैं अपनी छुट्टियों का ज्यादा समय अपने गांव में माता पिता के साथ बिताना चाहता था सो मैंने उन्हें मना कर दिया और हाईवे पर् उतर गया। बारात आगे बढ़ गयी और मैं जहाँ उतरा वहाँ से थोड़ा आगे (रोड में ही) बढ़ा। वहां एक घर था। उनसे उजाला करने के लिए टॉर्च या मशाल आदि की व्यवस्था करने के लिए उनसे मैंने आग्रह किया।
और फिर शुरू हुवा काली अँधेरी रात का सफर
खैर उनके पास टॉर्च तो नहीं पर् मशाल की और थोड़ा केरोसीन तेल की व्यवस्था हो गयी थी। उनका धन्यवाद करते हुए मैं आगे बढ़ा जहाँ से अब गांव के लिए जंगल की असली चढ़ाई शुरू होनी थी। यह लगभग रात के 8 या 8.30 PM के आस पास की बात होगी। पहाड़ों में इन महीनों में इस समय बहुत घुप्प अँधेरा हो जाता है मानों आधी रात हो गयी हो।
और मशाल पर आग लगाकर मैं आगे बढ़ गया। मन में एक अजीब डर बैठ गया था कि जंगल के रास्ते न जाने कैसे-कैसे जानवर मिलेंगे ? क्या मैं उनसे बच पाऊंगा ? यही सोच सोच कर दिमाग कि ऐसी कि तैसी होये जा रही थी कि अचानक मेरी आखें ख़ुशी से चमक गयी। मुझे मेरे गांव के एक दादा जी दिख गए जो की गांव की तरफ ही उस अँधेरे में जा रहे थे। जब उनके नजदीक गया तो तब पता चला की इस अँधेरी रात में वो भी अकेले , क्यों वे इस घनघोर जंगल के रास्ते घर जा रहे हैं।
दादा जी पूरे शुरूर में थे। 4 पेग मारकर तो चूहा भी शेर बन जाता है और यहाँ तो पूरा जीता जागता इंसान था। मैंने उनसे पूछा भी कि दादा जी आप इतनी रात को जा रहे हो , कुछ हो गया तो? वे बोले ये मेरा लगभग रोज का है , मेरी ये आदत पिछले 40 सालों से है , आज तक कुछ नहीं हुवा तो अब क्या होगा? और हो भी गया तो क्या ? वैसे भी उम्र हो चली है। मुझे लग गया था कि ये दादा जी नहीं उनकी दारु बोल रही है। खैर मुझे क्या ? मुझे तो रास्ते का एक साथी मिल गया। रास्ते में हम दोनों गप-शप लगाते हुए आगे बढ़ रहे थे। दादा जी कभी मेरी पढाई के बारे में पूछते तो कभी मेरी भविष्य कि प्लानिंग के बारे में और मैं भी उनकी हर बात का जबाब बड़ी शालीनता से देता।
मुझे पहले जब जब भी गांव आने का सौभाग्य प्राप्त हुवा तो ये दादा से हमारे घर पर आकर मेरी कुशल क्षेम जरूर पूछते और सच बताऊँ तो ये दादा जी मुझे प्यार भी बहुत करते थे बचपन से , इसलिए उनके साथ मेरा लगाव बहुत अच्छा था। खैर बातें करते -करते हम दोनों गांव कि सीमा तक पहुंच गए। पर उनके मुँह से आने वाली शराब के महक ने मेरा दम घोंट दिया था पर बुजुर्ग हैं ये सोच कर कुछ बोल भी नहीं पाया। गांव कि सीमा पर जब पहुंचे तो दादा जी को लघु शंका (पेशाब) आ गयी और बोले "बेटा तू जरा रुक मैं जरा हल्का होकर आता हूँ " मैंने कहा ठीक है दादा जी पर ज्यादा नीचे मत जाना , नीचे खाई है और अँधेरा भी काफी है कही नीचे खाई में न गिर जाओ इसलिए संभलकर जाना " "ठीक है " यह कहकर दादा जी पेशाब करने वह से थोड़ा नीचे उतर गए और मैं ऊपर उनकी प्रतीक्षा।
सफर का ऐसा अंत ?
काफी देर हो गयी थी , लगभग पांच मिनट हो गए और दादा जी अभी भी पेशाब करने में लगे हुए हैं ? मैंने उनको आवाज़ दी " दादा जी आ जाओ , अभी तक नहीं हुई क्या?" पर वह से कोई जबाब नहीं आया। मैं थोड़ी देर और रुका और फिर आवाज़ दी परन्तु इस बार भी दादा जी चुप। अब तो मुझे घबराहट होने लगी थी क्योकि मशाल भी लगभग ख़त्म होने को थी। मैं बड़ी सावधानी से नीचे उतरा और दादा जी को देखने लगा परन्तु दादा जी वहाँ नहीं थे। मैंने फिर आवाज़ लगाई परन्तु कोई उतर नहीं था। अब तो मुझे पूरा विश्वाश हो गया कि दादा जी शराब के नशे में नीचे खाई में गिर गए और नीचे वैसे भी घास है तो गिरने कि आवाज़ भी नहीं सुनाई दी।
यह सोच कर मैं एकदम घबरा गया और उसी घबराहट में मेरी मशाल भी बुझ गयी और अब मानो मुझे काटो तो खून नहीं। मैं बुरी तरह से डर गया था। और उसी घबराहट में घर कि तरफ भाग गया । अँधेरा था जिसकी वजह से मुझे कई जगह ठोकरे भी लगती रही। खैर जैसे कैसे मैं अपने घर पहुंच गया। मैंने घर का दरवाज़ा खटखटाया तो माता जी ने खोला। मुझे यूँ अचानक सामने देख कर वो घबरा भी गयी और आश्चर्यचकित भी। बोली - "तू इतनी रात को आ रहा है ?" तेरा दिमाग तो ख़राब नहीं हो गया ?" मैंने सांस में सांस लेकर बोला "माँ मैं तो ठीक हूँ पर अभी एक काण्ड हो गया " माँ ने पूछा क्या तो मैंने माँ को सारी बात बता दी।
मेरा इतना बोलना या सुनाना था माँ जैसे जड़ होकर मूर्ती बन गयी हो, बोली " तू ये क्या बकवास कर रहा है" ? जिन दादा जी को तो नीचे खाई में गिर कर मर गए हो सोच रहा है उनको मरे हुए तो 3 महीने हो गए हैं " तो तूने किसको देख लिया "। यह सुनकर अब जड़ होकर मूर्ती बनने कि बारी मेरी थी। मैं और भी घबरा गया , मुझे जैसे सांप सूंघ गया हो . मैंने माँ से कहा माँ सच में वो मेरे साथ नीचे हाईवे से आये और रास्ते में पेशाब करने के बहाने खाई की तरफ नीचे उतरे और मुझे लगता है वो खाई में गिर गए हैं।
माँ बोली चुप कर और इधर आ " ये पता नहीं मेरे बच्चे को किसकी नजर लग गयी है" बड़बड़ाते हुए मुझे अंदर ले गयी। पहले तो मुझसे हाथ मुँह धुलवाया फिर मेरी नजर उतारने लगी। और अपने सभी देवी देवताओं और इष्टों से प्रार्थना करने लगी कि मेरे बच्चे कि रक्षा करो। मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा था। यदि उन दादा जी को मरे हुए 3 महीने हो गए तो जो मेरे साथ थे वो कौन थे ? उनका भूत ?? हे ईश्वर ! कल रात में इतनी देर तक एक भूत या आत्मा से बातें कर रहा था ?
विज्ञान और विश्वास के बीच कि लड़ाई
यही सोच सोच कर मैं दिसम्बर के महीने में पसीने से लथपथ हो गया था और सच मानो उस रात मुझे तेज बुखार भी आया था। सुबह उठकर मैं सीधे उन दादा जी के घर गया और पता किया तो सच में उन दादा जी का निधन ३ महीने पहले खून कि उल्टी होने के बाद हुई थी। और मरने से पहले उन्होंने शराब का सेवन किया था और शायद रात में इसीलिए उनके मुँह से शारब कि बू आ रही थी। सच में यह घटना आज भी मेरे मन-मस्तिष्क में एक फिल्म कि भाँती छपी है और इसका एक-एक पल मेरे आज भी रोंगटे खड़े कर देता है .
अब बात आती है इस सदी में , जहां हम, टेक्नोलॉजी कि बातें करते हैं, मेडिकल कि बातें करते हैं ,विज्ञान कि बातें करते हैं और न जाने किन किन मॉडर्न शब्दों में अपने आप को सुशोभित करते हैं , तो क्या हमे इन सभी भूत-प्रेत -आत्मा आदि वाली बातों पर यकीन करना चाहिए ? मेरा तो यह मानना है जिसने कभी महसूस किया है वह पक्का यकीन करेगा और जिसने कभी भी नहीं देखा और न ही महसूस किया है वो इसे अन्धविश्वाश ही कहेगा। खैर अपनी अपनी सोच और समझ है। क्योकि यह "विश्वाश" एवं "अन्धविश्वाश" के बीच की एक कड़ी है और जिसने इस कड़ी को पढ़ लिया समझो उसे ज्ञान प्राप्त हो गया।
कहानी का सार -
आप में से बहुत लोग समुद्र कि गहराइयों में शायद डाइव लगाए हों ? वहाँ एक नीलमणि सा चमकने वाला पत्थर अक्सर दिखाई देता है। अब जिन्होंने डाइव लगा कर उस पत्थर को देखा है ,वो तो मानते हैं कि इस तरह का कोई पत्थर होता है और जिन लोगो ने कभी समुद्र ही नहीं देखा तो उनके लिए अविश्वास का विषय बन जाता है। ठीक उसी प्रकार जिन लोगो का सामना इन नकारात्मक शक्तियों से कभी भी नहीं हुआ है उनके लिए यह पूर्ण रूप से अन्धविश्वास है और जिन्होंने इसे महसूस व देखा है उनके लिए फिर यह कोई नई बात नहीं।